100 Kadam Safalta Ke | KR कमलेश
100 कदम सफ़लता के ( 100 Kadam Safalta Ke ) KR कमलेश हिन्दी pdf book - आत्मीय पाठको , यद्यपि अपनी कृति के सम्बन्ध में कुछ लिखना ' आत्म - प्रशंसा ' की परिभाषा में ही आता है , तथापि औपचारिकतावश प्रस्तुत पुस्तक की पृष्ठभूमि के क्रम में यहाँ थोड़ा - सा निवेदन अवश्य कर रहा हूँ .( 100 कदम सफ़लता के ) कृपया इसे अन्यथा न लें ।
• यह कतई अपेक्षित नहीं है कि कोई विचार किसी तथाकथित पवित्र भाषा या क्लिष्ट शब्दावली में हो , अथवा किसी महापुरुष / महात्मा के मुख से निकला हो , तब ही महत्वपूर्ण हो सकता है । किसी साधारण व्यक्ति द्वारा साधारण भाषा में अभिव्यक्त साधारण विचार भी असाधारण हो सकता है । प्रस्तुत पुस्तक की संरचना इसी अवधारणा पर आधारित है ।
• यह भी अवधारित है कि मानव - जाति के आविर्भाव से ही हम एक - दूसरे को कुछ न कुछ सीख देते आये हैं । विश्व के लगभग सभी दार्शनिकों , विचारों एवं महापुरुषों का प्रमुख कार्य शिक्षा देना ही रहा है । हमारे धार्मिक ग्रन्थ तो जीवन दर्शन से ही भरे पड़े हैं , कतिपय पवित्र आत्माओं को तो परमात्मा या परमात्मा के सन्देश वाहकों के रूप में इसी प्रयोजनार्थ समय - समय पर इस पृथ्वी लोक पर अवतरित होना पड़ता है ।
परन्तु हमने भी न सीखने की कसम खा रखी है । इसी कसम को तोड़ने की दिशा में प्रस्तुत के माध्यम से कुछ सार्थक प्रयास किये गये हैं । प्रस्तुत पुस्तक में विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं एवं निजी अनुभवों के आधार पर साधारण एवं व्यावहारिक तथ्यों को सौ मंत्रों तथा एक हजार उप - मंत्रों के रूप में सहज , सरल एवं बोधगम्य शब्दों में सार्थक दृष्टान्तों के साथ जनसाधारण के उपयोगार्थ अनुपम , उपयोगी एवं रोचक ढंग से प्रस्तुत करने के विनम्र प्रयास किये गये हैं ।
• मंत्र , जिन्हें आप गा भी सकते हैं , गुनगुना भी सकते हैं । मंत्र , जिन्हें आप ओढ़ भी सकते हैं , बिछा भी सकते हैं । मंत्र , जिन्हें आप अपने - अपने चौखटों में बिठा भी सकते हैं , बोलचाल के साधारण शब्दों को सहज भाव से तात्मक एवं रागात्मक अभिव्यक्ति के साथ प्रस्तुत करने के प्रयास किये गये हैं । ' ओशो साहित्य ' से प्रेरित होकर ही प्रस्तुत पुस्तक की परिकल्पना की गई है । ओशो तो अथाह सागर है ।
मेरे जैसे साधारण लेखक के लिए तो दो - चार बूंदें ही पर्याप्त हैं । मैंने दो - चार बूंदों के उपयोग का दुस्साहस तो अवश्य किया है , किन्तु उनका सदुपयोग निश्चित रूप से नहीं कर सका हूँ , जिसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ , लेखक उन सभी का भी आभारी है , जिनके शब्द अथवा विचार इस पुस्तक में प्रयुक्त हुए हैं । अपने कवि मित्र मोहन आलोक एवं श्री चन्द्रशेखर विजयवर्गीय , सेवानिवृत्त प्राचार्य का भी लेखक आभारी है , जिन्होंने पुस्तक के शिल्प - सौष्ठव में अमूल्य सुझाव दिये हैं ।
लेखक को अपनी सुपुत्रियाँ संतोष मीना , वरिष्ठ व्याख्याता ( इतिहास ) एवं राजेश्वरी मीना , व्याख्याता ( दर्शनशास्त्र ) कालेज शिक्षा , का भी भरपूर नैतिक समर्थन प्राप्त हुआ है . पुस्तिका में असन्दर्भित पद्यांश और अधिकांश उद्धृत गद्यांश लेखक ने अपने साहित्य से लिये हैं , यह कतई अपेक्षित नहीं है कि आप लेखक के विचारों से सहमत हों ।
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सम्बन्धी आपके अधिकारों का सदैव सम्मान किया जायेगा . पुस्तिका में प्रयुक्त अधिकांश सूत्र तो आस - पास के परिवेश से ही उठाये गये हैं . पढ़ने पर आपको ऐसा लगेगा , जैसे कि आप ही के विचार चुरा लिए गये हैं ।
पुस्तक का कोई शब्द , वाक्यांश अथवा मंत्र यदि आपको रूपान्तरित कर सके अथवा आपका नजरिया बदल सके तो पुस्तक को यही सबसे बड़ी उपलब्धि होगी । बड़े - बड़े दावे करने का तो कोई औचित्य नहीं है , किन्तु इतना निश्चित है कि पुस्तक आत्म - दर्शन , आत्म - विश्वास एवं सकारात्मक सोच की दिशा में अवश्य सहायक सिद्ध होगी । तो आइए
" कभी - कभी खुद से भी , बतिया कर तो देखें , जिन्दगी भी क्या जो , पराई हुई सी लगे ।
" ' यादृश्मिन्थापि तमपस्या विद्द यैस्वयम कहते सो करत . ' ( ऋग्वेद ) ( अर्थात् मनुष्य जिस पदार्थ में मन लगा लेता है , उसे अपने पुरुषार्थ से प्राप्त कर ही लेता है . ) लेखक - K R Kamlesh
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