अच्छा बोलने की कला और कामयाबी | Achchha Bolne Ki Kala Aur Kamyabi | Hindi Pdf Book

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अच्छा बोलने की कला और कामयाबी


पुस्तक के बारे में जानकारी  -

अच्छा बोलने की कला और कामयाबी | Achchha Bolne Ki Kala Aur Kamyabi पुस्तक की दक्षता उस व्यक्ति के समान होती है , जो किसी विषय विशेष पर अपने दृष्टिकोण के द्वारा ऊर्जा के प्रथम स्रोत तक पहुँचता है । पुस्तक में सुझावों की अभिव्यक्ति बेहद प्रभावशाली हो सकती है ; लेकिन यदि विषय के प्रति लेखक का दृष्टिकोण गलत हो तो अच्छे - से - अच्छा सुझाव भी अप्रभावशाली प्रतीत हो सकता है । 

सार्वजनिक रूप से बोलने की कला से संबंधित प्रशिक्षण की विषय - वस्तु का बाहरी स्वरूप महत्त्वपूर्ण नहीं होता । मुख्य रूप से इसका संबंध किसी विशेष शैली को हू - ब - हू सीखना भी नहीं है । इसका संबंध स्थापित मानकों का अनुपालन करना भी नहीं है । 

किसी व्यक्ति के लिए सर्वजन के सामने बोलने की कला का मतलब उसकी अपनी शैली के मुताबिक सामान्य अभिव्यक्ति एवं सार्वजनिक प्रचालन है । इसलिए आवश्यक है कि व्यक्ति को सर्वप्रथम इस कला से जुड़े योग्य एवं महत्त्वपूर्ण पहलुओं को बारीकी से समझना चाहिए । 

यदि सीखनेवाले के व्यक्तित्व में कुछ विशेष गुण न छिपे हों तो ऐसी कोई युक्ति नहीं है , जिसके जरिए सार्वजनिक रूप से बोलनेवाले व्यक्ति को एक मशीन से ज्यादा कुछ और बनाया जा सके , या कहिए कि एक अत्यधिक निपुण मशीन । 

लिहाजा हमारी प्रशिक्षण प्रणाली का मुख्य आधार स्व - विकास है । प्रणाली का दूसरा सिद्धांत पहले सिद्धांत के बेहद करीब है । व्यक्ति के लिए अपने विचारों , भावनाओं और शारीरिक शक्तियों पर काबू रखना बेहद जरूरी है , ताकि बाहरी व्यक्तित्व के माध्यम से आंतरिक व्यक्तित्व को अबाधित अभिव्यक्ति का बोध कराया जा सके । भाषा , स्वर - शैली और संकेतों जैसे उपयोगी गुणों को तब तक सीखना व्यर्थ है , जब तक इस प्रणाली के दो मुख्य सिद्धांत सामान्य अभिव्यक्ति , स्वतंत्र विचार एवं स्व विकास को जीवन में न उतारा जाए । 

बोलने से पहले अनुमान लगाना इस प्रक्रिया का तीसरा सिद्धांत है । ध्यान देना चाहिए कि भाषा - शैली से किसी विवाद को पनपने का मौका तो नहीं मिल रहा है । उत्तम भाषा - शैली को पहचानने की योग्यता न रखनेवाले व्यक्ति के लिए इस कला को सीखना बेहद मुश्किल साबित हो सकता है । व्याख्यान में अंतहीन चक्र के समान प्रतीत हो सकता है , लेकिन वास्तव में यह अनुभव का विषय है । 

अनेक शिक्षकों ने प्रशिक्षण की शुरुआत के लिए कैसे को महत्त्वपूर्ण माना है , लेकिन यह एक निरर्थक प्रयास है । यह एक प्राचीन धारणा है कि किसी कार्य को करके ही उसे सीखा जा सकता है । प्रशिक्षण के शुरुआती दौर में सार्वजनिक रूप से बोलने की कला सीखनेवाले व्यक्तियों के लिए सबसे जरूरी है बोलना । 

इस दौर में स्वर - शैली और संकेतों जैसे अन्य विषयों का अध्ययन खास उपयोगी साबित नहीं होता । बोलने के बाद स्व - अवलोकन और दर्शकों की आलोचनाओं के आधार पर बोलने की कला को तराशा जा सकता है । बड़ा सवाल है कि क्या खुद की कमी का आकलन किया जा सकता है ? इसके लिए तीन तथ्यों की जानकारी जरूरी है । 

आम राय के मुताबिक , प्रभावी वक्ता की क्या विशेषताएँ होती हैं ? इन विशेषताओं को अर्जित करने का माध्यम क्या है ? और सीखनेवाले की शैली में वह कौन सी कमी है , जो इन विशेष गुणों को अर्जित करने के रास्ते में अड़चन का काम कर रही है ? इसका अर्थ है कि अनुभव को उच्चतम शिक्षक नहीं माना जा सकता ; लेकिन पहला और आखिरी अवश्य ही माना जा सकता है । 

यह भी आवश्यक है कि अनुभव का दोहरा इस्तेमाल किया जाए , यानी खुद के अनुभव को न्यायसंगत एवं संशोधित करने के लिए अन्य लोगों के अनुभव की कसौटी पर भी खरा उतारना आवश्यक होता है । खुद को आत्म - ज्ञान के लिए प्रशिक्षित करनेवाला व्यक्ति उच्चतम आलोचक बनने की योग्यता रखता है ऐसा ज्ञान जो अन्य मस्तिष्क सोचता हो और खुद के आकलन का ऐसा सामथ्यं , जो योग्य मानकों पर खरा उतरता हो । कैट ने कहा है , ' यदि मैं चाहूँ तो मैं कर भी सकता हूँ । 

इस अंक की विषय - सूची से इन लेखों की निरंतर घोषणा , व्याख्यान और मिसाल मिलती रहेगी । छात्रों को उनकी जानकारी के आधार पर बोलने के लिए निरंतर प्रेरित किया जाएगा । तत्पश्चात , आत्मसंयम के सामान्य सुझावों के साथ आंतरिक व्यक्तित्व के द्वारा बाहरी व्यक्तित्व को प्रभावित करने की विधि पर जोर दिया जाएगा । 

अंत में , छात्र को खुद अर्जित किए सिद्धांत , अवलोकन , दूसरों से अर्जित किए अनुभव और अपनी निजी भाषा शैली के आधार पर बोलने और केवल बोलने के लिए प्रेरित किया जाता रहेगा । -जे . बरग एसनवीन

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