स्वामी विवेकानंद की आत्मकथा | Autobiography of Swami Vivekananda
पुस्तक के बारे में जानकारी -
पुस्तक का नाम/ Name of EBook: | स्वामी विवेकानंद की आत्मकथा | Autobiography of Swami Vivekananda |
पुस्तक के लेखक / Author of Book : | श्री शंकर जी |
पुस्तक की भाषा/ Language of Book : | हिंदी / Hindi |
पुस्तक का आकार / Size of Ebook :
| 3 MB |
पुस्तक में कुल पृष्ठ / Total Page in Ebook :
| 258 Page |
Downloding status |
स्वामी विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Atmakatha| महापुरुष या महामानव को जानने का सबसे श्रेष्ठ उपाय है - उन लोगों द्वारा लिखित या मुख द्वारा निःसृत वाणियाँ । यह सब अगर उपलब्ध हों तो दूसरों के कहे का कोई मतलब नहीं होता । यह बात हमारे आदरणीय अध्यापक हावड़ा विवेकानंद इंस्टीट्यूशन के हेडमास्टर श्री सुधांशुशेखर भट्टाचार्य कहते थे ।
अफसोस की बात यह है कि देश के बहुतेरे महामानवों ने अपने बारे में कुछ नहीं लिखा , समय की अवहेलना और आलस्य लाँघकर उन लोगों की लिखी चिट्ठियाँ भी उपलब्ध नहीं हैं , इसीलिए सुनी - सुनाई बातों के अलावा हमें खास कुछ उपलब्ध नहीं होता । स्वामी विवेकानंद का जीवन नितांत क्षणस्थायी होने के बावजूद सौभाग्य से विभिन्न समय में लिखी गई अजस्र पत्रावली , चर्चा - परिचर्चा , संस्मरण , हँसी - ठिठोली , भ्रमण - वृत्तांत और रम्य रचनाओं के संभार हम वंचित नहीं हुए हैं ।
इससे भी ज्यादा सुखद बात यह है कि उनके महाप्रयाण के एक शताब्दी बाद भी , अनेक अप्रत्याशित सूत्रों से , अनगिनत विस्मयकारी तथ्य आज भी आविष्कृत हो रहे हैं । मसलन स्वामीजी की पत्रावली । उद्बोधन में प्रकाशित पत्रावली के तीसरे संस्करण में पत्रों की संख्या थी 434 , लेकिन पूस , 1334 बँगला संवत् में प्रकाशित चौथे संस्करण में इन पत्रों की संख्या 576 हो गई ।
इनमें 153 पत्र बँगला में 418 पत्र अंग्रेजी में , 3 पत्र संस्कृत में और 2 विशुद्ध फारसी में हैं । बँगला में प्रकाशित पत्र यहीं खत्म नहीं होते , इसका प्रमाण है अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित ' द कंप्लीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानंद ' ग्रंथ का नवम खंड ।
हाल ही में उस खंड में 227 महत्त्वपूर्ण पत्र मुद्रित हुए हैं , जो निश्चय ही चौंकानेवाले हैं । अंग्रेजी में प्रकाशित ' द कंप्लीट वर्क्स ' के विवरण के मुताबिक अभी तक स्वामीजी के कुल 777 पत्र हमारी नजर में आ चुके हैं । कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि स्वामीजी द्वारा लिखित पत्रों की संख्या एक हजार से भी अधिक होगी । और भी कई तथ्य गौर करने लायक हैं ।
पत्रावली में संकलित स्वामीजी का पहला पत्र ( जो बनारस के श्री प्रमदादास मित्र को लिखा गया है ) 12 अगस्त , 1888 को डाक में डाला गया था । काशीपुर के उद्यानवाटी में श्रीरामकृष्ण के तिरोधान के बाद भी संन्यासी विवेकानंद का सविनय हस्ताक्षर मिलता है - ' दास नरेंद्र ' । उन दिनों उनका अस्थायी ठिकाना था - काला बाबू का कुंज , वृंदावन ! उनकी इच्छा थी कि वे जल्दी ही हरिद्वार चले जाएँ । इसलिए वे परिचय - पत्र की तलाश में थे – ' हरिद्वार में अगर आपकी जान - पहचान का कोई हो , कृपया उनके नाम कोई पत्र दे दें तो विशेष अनुग्रह होगा ।
' जीवन के विभिन्न पों में स्वामीजी ने इसी किस्म का परिचय - पत्र संग्रह किया और वे तमाम पत्र अपरिचित स्थानों में एक धनहीन संन्यासी के विशेष संबल बने । प्रमदादास मित्र को पत्र लिखते समय स्वामीजी की उम्र पच्चीस वर्ष थी । इससे पहले उन्होंने आत्मीय - स्वजन , बंधु - बांधव , सहपाठी , शिक्षक या गुरु भाइयों को पत्र न लिखे हों , यह कतई संभव नहीं है ।
मौका मिलते ही वे पत्र लिखा करते थे , इसलिए यह कहा जा सकता है कि अपने समय की अवहेलना से उनके जीवन के पहले पर्व में लिखे गए अनेक पत्र या तो गुम हो गए या आज भी प्रकाशन के इंतजार में कहीं दबे हुए हैं । खोजकर्ताओं के लिए और ज्यादा अफसोस की बात है उनकी पारिवारिक पत्रावली की उल्लेखनीय अनुपस्थिति ।
अपनी गर्भधारिणी जननी के प्रति उनकी आजीवन भक्ति आज किसी से भी छिपी नहीं है । अपनी दीदी , भाई - बहनों के बारे में उनकी चिंता और दुश्चिंता तथा उन लोगों की रक्षा के लिए उनकी लगातार कोशिश संन्यासी विवेकानंद के जीवन का एक आलोकित , लेकिन विवादित अध्याय रहा है । विलायत से उनके मँझले भाई महेंद्रनाथ दत्त का अचानक गायब हो जाना और निःसंबल हालत में पैदल विभिन्न देशों के परिभ्रमण के बाद आखिरकार लंबे अर्से के बाद कलकत्ता लौट आने के वृत्तांत से भी हम अनजाने नहीं हैं ।
हम इस बारे में स्वामीजी के गहरे दुःख और घोर परेशानी से भी परिचित हैं । महेंद्रनाथ एकदम से गायब हो गए और उसके बाद उन्होंने घरवालों को , यहाँ तक कि अपनी माँ को भी , कोई पत्र नहीं लिखा । अपने लापता भाई को खोज निकालने और उससे माँ को अपने कुशल - समाचार का पत्र देने का अनुरोध करने के लिए स्वामीजी की कोशिशों का अंत नहीं था ।
ऐसे समय में सुदूर प्रवास से संन्यासी संतान ने अपनी प्यारी माँ को पत्र न लिखा हो , इस बात पर विश्वास नहीं होता । अब सवाल यह उठता है कि उन पारिवारिक पत्रों की क्या दशा हुई ? उस समय की पत्रावली से एक विस्मयकर विवेकानंद को खोज पाने की आशा , पूरी - पूरी तरह त्याग करना , प्रशंसकों को आज भी अच्छा नहीं लगता ।
लेकिन पट्टीदारों के विवाद से क्षत - विक्षत , बीच - बीच में अपने पुरखों के घर से विताडित और बाद में अंग्रेज शासकों की जहरबुझी नजरों में पड़े छोटे भाई की मेहरबानी से बार - बार पुलिसिया तलाशी की विडंबना में फँसे दत्त परिवार के कागज - पत्र और संस्मरण - चिह्नों से हम जो हमेशा के लिए वंचित हो गए , इसका वेदनादायक उल्लेख हमें उनके छोटे भाई भूपेंद्रनाथ दत्त की विशुद्ध बँगला और अंग्रेजी रचनाओं से उपलब्ध होता है । सिर्फ पत्रावली या स्मारक - चिह्न ही नहीं , झंझामय संन्यासी का अनन्य गौरव दुनिया के विभिन्न स्थलों में दिए गए उनके अनगिनत व्याख्यान होते हैं ।
वे सब अतुल्य व्याख्यान जिन लोगों ने सुने थे , परवर्ती काल द्वारा दिए गए चंद सेकंडहैंड विवरण खोजकर्ताओं ने अत्यंत धैर्य के साथ संग्रहीत किए हैं । लेकिन मूल वाणी के विद्युत - प्रवाह से हम सब हमेशा के लिए वंचित रह गए । मामूली सा जो - जो उपलब्ध है , वह गुडविन नामक अंग्रेजी शॉर्ट - हैंड लिपिकार की निष्ठा और असाधारण निपुणता की वजह से सही - सलामत प्राप्त हो सका और इसके लिए हम लोग इस विदेशी व्यक्ति के हमेशा कृतज्ञ रहेंगे ।
सुनने में आया है कि विवेकानंद के भाषणों के जितने शॉर्ट - हैंड नोट उन्होंने अमेरिका , यूरोप और भारत में लिए थे , उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा कभी टाइप ही नहीं हुआ । वह सब उदासीन गुडविन के ट्रंक में जतन से संगृहीत थे । दक्षिण भारत में जब उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई तो लोगों ने अनजाने में उनका ट्रंक इंग्लैंड में उनकी माँ के पास भेज दिया ।
उस रत्न - समृद्ध पेटिका की खोज में स्वयं सिस्टर निवेदिता विलायत पहुँचकर काफी ढूँढ़ा था , लेकिन दरिद्र गुडविन परिवार को खोज निकालना उनके लिए संभव नहीं हुआ । यह मान लिया जा सकता है कि यह अमूल्य संग्रह हमेशा के लिए काल - समुद्र में निमज्जित हो उन लोगों गया ।
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