शिक्षा(Shiksha): My Experiments as an Education Minister | Author - Manish Sisodia| Hindi Book Download | Hindi Book Buy at Amazon
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उत्कृष्टता के स्कूलों से लेकर बोर्ड परीक्षाओं और अत्याधुनिक सुविधाओं में शानदार सुधार तक, दिल्ली के सरकारी स्कूल रॉक करते हैं। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 'खुशी पाठ्यक्रम' और 'उद्यमिता मानसिकता कार्यक्रम' जैसी नवीन अवधारणाओं के कार्यान्वयन ने भारत की राष्ट्रीय राजधानी में पब्लिक स्कूल शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव लाया है।
दिल्ली के उपमुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया इस तरह के परिवर्तन की शुरुआत करने में दूरदर्शी सहायक हैं। एक शिक्षा मंत्री के रूप में उनके अनुभवों और प्रयोगों को याद करते हुए, यह पुस्तक इस अद्भुत सफलता की कहानी का ब्लो-बाय-ब्लो विवरण प्रस्तुत करती है। आशा और संभावनाओं की किताब, शिक्षा उन सभी को प्रेरित करेगी जो शिक्षा के माध्यम से समाज में बदलाव लाने के लिए तैयार हैं।
लेखक के बारे में
एक सरकारी स्कूल शिक्षक के बेटे, मनीष सिसोदिया, उपमुख्यमंत्री और दिल्ली के शिक्षा मंत्री, आम आदमी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता और राजनीतिक मामलों की समिति के सदस्य हैं। अतीत में, वह ज़ी न्यूज़ और ऑल इंडिया रेडियो के पत्रकार थे, जिसके बाद वे सूचना का अधिकार अधिनियम पारित करने के संघर्ष में सक्रिय रहे और जन लोकपाल आंदोलन की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दिल्ली में शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए उनके महत्वपूर्ण योगदान ने उन्हें देश भर में सरकार में सर्वश्रेष्ठ शिक्षा प्रशासकों और शिक्षाविदों में से एक के रूप में प्रतिष्ठा दिलाई है।
पुस्तक के शुरुआती पेज
दिल्ली , एक उम्मीद ... दिल्ली में , सरकारी स्कूलों के बारहवीं क्लास के नतीजे इस साल 96 प्रतिशत से ऊपर रहे हैं जो कि पिछले इक्कीस साल में सबसे बेहतर नतीजे हैं । आज दिल्ली में सैकड़ों सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहां बहुत से अभिभावक अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल के बजाय सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाह रहे हैं । यह बात मुझे गर्व से भर देती है ।
एक और उपलब्धि है हमारी , वह यह है कि पिछले चार सालों में दिल्ली के अधिकतर बड़े - बड़े प्राइवेट स्कूलों की फीस नहीं बढ़ी है । ऐसा इसलिए कि सरकार ने इन तमाम स्कूलों के खातों की जांच कराई और जब यह पाया कि उनके पास करोड़ों रुपए सरप्लस में पड़े हैं तो उन्हें फीस बढ़ाने की अनुमति नहीं दी ।
आज देश के लगभग सभी राज्यों से शिक्षा विभागों से जुड़े हुए लोग दिल्ली के स्कूलों में आकर समझने की कोशिश कर रहे हैं आखिर दिल्ली में ऐसा क्या काम हुआ है जिसकी चर्चा देशभर में हो रही है ।
सिर्फ देश ही नहीं बहुत सारे विदेशी प्रतिनिधिमंडल भी अब दिल्ली के शिक्षा मॉडल को समझने के लिए विशेष रूप से दिल्ली आ रहे हैं ।
आंदोलन के दिनों में 2010-11 में , मैं और अरविंद केजरीवाल जी अक्सर इस बात पर फिक्र किया करते थे कि हमारे देश में शिक्षा राजनीति के केंद्र में क्यों नहीं है ? क्यों हमारे देश में सरकारें बजट में शिक्षा के लिए उतना पैसा नहीं रखती जितने की ज़रूरत है ? ऐसा क्यों होता है कि चुनाव के वक़्त शिक्षा पर कोई बात नहीं करता ? 2015 में जब दिल्ली के लोगों ने सत्तर में से सड़सठ सीटें देकर अरविंद केजरीवाल को अपना मुख्यमंत्री चुना तो इन सवालों के जवाब देने की बारी हमारी थी । हमें अपने इन सवालों के जवाब खुद को भी देने थे और देश की राजनीति को भी ।
मुख्यमंत्री बनते ही अरविंद केजरीवाल जी ने सभी मंत्रियों और अधिकारियों को स्पष्ट कर दिया था कि शिक्षा उनका और उनकी सरकार का सबसे प्रमुख एजेंडा है आज करीब साढ़े चार साल बाद जब में इस किताब की भूमिका लिख रहा हूँ तो मुझे खुशी है कि दिल्ली में मात्र साढ़े चार साल में एक सरकार ने इस धारणा बदला है ।
यह बात सही है कि हमारे देश की राजनीति में शिक्षा को केंद्र में रखकर काम करने की परंपरा नहीं रही है । शिक्षा को केंद्र में रखकर राजनीति का काम करना आसान भी नहीं है ।
उसके दो प्रमुख कारण हैं ; पहला तो यह है कि हम में व्यवस्था की बड़ी कमी है । आज देशभर में शिक्षा से संबंधित सारे निर्णय शिक्षा मंत्री शिक्षा सचिव या शिक्षा निदेशक के पद पर बैठे हुए व्यक्तियों द्वारा लिए जाते हैं और मौजूदा व्यवस्था के तहत इनमें से एक भी व्यक्ति का इन पदों पर आने से पहले शिक्षा की समझ होना , शिक्षा का अनुभव होना अनिवार्य नहीं है ।
कोई भी व्यक्ति शिक्षा मंत्री सिर्फ इस आधार पर बन सकता है कि वह चुना गया है और उसके दल को बहुमत मिला है । इसी तरह कोई भी व्यक्ति शिक्षा निदेशक या शिक्षा सचिव सिर्फ इस आधार पर बनता है वह उस सीनियरिटी का आईएएस अधिकारी है ।
यही तीन व्यक्ति देश की शिक्षा के कर्णधार हैं लेकिन ना तो केंद्र सरकार में और ना ही राज्य सरकारों में इन तीनों में से किसी का भी शिक्षा क्षेत्र में काम करने का अनुभव या कौशल होना अनिवार्य है । जो शिक्षा को समझते हैं , जानते हैं , उनके पास निर्णय लेने का अधिकार नहीं है और जो निर्णय लेते हैं , उनके पास शिक्षा की समझ नहीं है ।
शिक्षा की वर्तमान स्थिति का पहला मूल कारण यह है मेरी समझ में दूसरा कारण है : शिक्षा पर काम करने के नतीजे तुरंत नहीं आते , इसमें समय लगता है जबकि आज की राजनीति तुरंत नतीजे चाहती है ।
आज लोग सरकार से तुरंत नतीजों की अपेक्षा करते हैं । ऐसे में कोई सड़क या पुल बनाने की राजनीति करना या फिर योजनाओं के माध्यम से लोगों की जिंदगी में छोटे - छोटे लाभ पहुंचाना जैसे- पेंशन , रोजगार , भत्ता इत्यादि इत्यादि ।
यह लोकप्रिय राजनीति के प्रमाणित एवं स्थापित तरीके हैं , जबकि शिक्षा में काम करने का मतलब सिर्फ स्कूल बना कर देना भर नहीं है ।
शिक्षा में सुधार का मतलब यह भी है कि हजारों लाखों सरकारी स्कूल टीचर्स के काम पर लगातार निगरानी रखना , उन्हें सामान्य से अधिक समय स्कूल में रहने , ट्रेनिंग में लगाने आदि के लिए बाध्य करना और उनकी जवाबदेही तय करना ।
यह सब किसी राजनेता को हजारों लाखों शिक्षकों के बीच अलोकप्रिय बनाने के लिए काफी है लेकिन इसके बिना , शिक्षकों को साथ लिए बिना , उन्हें मिशन मोड़ में डाले बिना शिक्षा में सुधार संभव नहीं है और संभवतः इसी अनुभव के आधार पर हमारे देश में राजनेताओं और सरकारों ने सफल कहलाने के लिए शिक्षा को अपना आधार नहीं बनाया ।
इन साढ़े चार सालों के दौरान मुझे शुभचिंतकों से कई बार यह सुनने को मिला है कि आप शिक्षा पर बहुत अच्छा काम कर रहे हैं , इसकी देश में सबसे ज्यादा जरूरत भी है , लेकिन कुछ ऐसे काम भी करिए जो राजनीति को सफल बनाए रखें । राजनीति को सफल बनाने से उनका आशय चुनाव जीतने से है ।
बहरहाल राजनीति की सफलता और असफलता भविष्य के गर्भ में है लेकिन आज दिल्ली इस बात का प्रमाण है कि अगर प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो शिक्षा के क्षेत्र में वह तमाम काम सफलतापूर्वक किए जा सकते हैं जिनकी आज देश में सबसे ज्यादा आवश्यकता है ।
दिल्ली का शिक्षा मॉडल इस बात का प्रमाण है कि जिस वक़्त देश में लगभग सभी राज्यों में सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं , राजनीतिक इच्छाशक्ति और अथक परिश्रम करके सरकारी स्कूलों को भी प्राइवेट स्कूलों जैसा बनाया जाता है ।
साथ ही , दिल्ली आज इसकी भी मिसाल बनी है कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति और ईमानदार सरकार हो तो प्राइवेट स्कूलों में भी मनमानी फीस बढ़ोतरी को रोका जा सकता है , जो आज देश के उन तमाम अभिभावकों की बड़ी पीड़ा है , जिनके बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं ।
इस किताब को लिखने का मेरा मकसद यह तो है ही कि लोग उन बारीकियों को समझ सकें जो दिल्ली में सरकारी स्कूलों की तस्वीर बदलने में प्रभावकारी साबित हुई हैं लेकिन साथ - साथ - Continue Reading
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